उड़ जा , उड़ जा प्यासे भँवरे,रस ना मिलेगा धारो में,
कागज़ के फूल जहाँ खिलते हैं, बैठ ना उन गुलाज़ारो पे,
नादाँ तमन्ना रेती में, उम्मीद कि कश्ती खेती है,
एक हाथ से देती है दुनिया, सौ हाथो से लेती है,
ये खेल है कबसे जारी, बिछुड़े सभी, बिछुड़े सभी बारी बारी...
अरे देखी ज़माने की यारी, बिछुड़े सभी, बिछुड़े सभी बारी बारी...
क्या लेके मिले अब दुनिया से, आंसू के सिवा कुछ पास नहीं
यहाँ फूल ही फूल थे दामन में, या कांटो की भी आस नही
मतलब की दुनिया है सारी
बिछुड़े सभी, बिछुड़े सभी बारी बारी
वक़्त है मेहरबान, आरजू है जवान
फिक्र कल कि करें, इतनी फुर्सत कहॉ
दौर ये चलता रहे, रंग उछलता रहे
रुप मचलता रहे, जाम बदलता रहे
दौर ये चलता रहे, रंग उछलता रहे
रुप मचलता रहे, जाम बदलता रहे
दौर ये चलता रहे, रंग उछलता रहे
रुप मचलता रहे, जाम बदलता रहे
रात भर मेहमान है बहारें यहाँ
रात ग़र जो ढल गयी, फिर ये खुशियाँ कहॉ
पल भर कि खुशियाँ है सारी
पल भर कि खुशियाँ है सारी...
बिछुड़े सभी, बिछुड़े सभी बारी बारी.....
Monday, June 25, 2007
Wednesday, June 13, 2007
पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा .....
आज हमने ये गाना सुना। बहुत दिनों के बाद.... मुझे अभी भी याद है १९८८ के वो दिन, जब हमने बस चलना सीखा था, अकेले घूमना सीखा था। जब चांद बड़ा हुआ करता था और सूरज भी कम गरम होता था, जब हवाएं तेज चलती थी और हम खजूर के पेड़ो से कच्चे कच्चे ही खा लिया करते थे, और पापा हम लोगो के लिए अंगूर खरीद दिया करते थे।
बचपन के दिन भी क्या दिन थे उड़ाते फिरते तितली बन के, बचपन...
पापा कहते थे कि बेटा ऐसा बनेगा, वैसा बनेगा। हम लोग वो मासूम फिल्म का "लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा " गाते थे, और पापा ये गाना सीखाते थे, "तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो, तुम्ही हो बंधु, सखा तुम्ही हो" ...
और हम तो पहले ये गाना गाते थे, "जिन्दगी एक सफ़र है सुहाना..... " लेकिन फिर आयी फिल्म "क़यामत से क़यामत तक" .......
फिर शुरू हुआ... " पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा........"
मेरा पहला प्यार... "जूही चावला" कित्ती सुन्दर थी और कितनी प्यारी... पर हम तो बहुत छोटे थे.... शायद इसीलिये जूही हमें नही मिली...
उदित नारायण.... भई उस समय के बाद हम तो कुमार सानू के फैन थे... बाद मे हमें जब ज्ञान प्राप्त हुआ तो पता चला कि उदित नारायण साहेब सच मे अच्छा गाते थे , जिसके खिलाफ हमने अपने बड़े भाई साहेब से काफी झगड़ा किया था।
पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा...... मेरा तो सपना है एक चेहरा, देखे जो उसको झूमे बहार, गालो पे खिलती कलियों का मौसम आँखों मे जादू होठों पे प्यार.....
लेकिन....
क्या से क्या हो गया, बेवफा तेरे प्यार में.... चाहा क्या क्या मिला बेवफा तेरे प्यार में.....
बचपन के दिन भी क्या दिन थे उड़ाते फिरते तितली बन के, बचपन...
पापा कहते थे कि बेटा ऐसा बनेगा, वैसा बनेगा। हम लोग वो मासूम फिल्म का "लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा " गाते थे, और पापा ये गाना सीखाते थे, "तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो, तुम्ही हो बंधु, सखा तुम्ही हो" ...
और हम तो पहले ये गाना गाते थे, "जिन्दगी एक सफ़र है सुहाना..... " लेकिन फिर आयी फिल्म "क़यामत से क़यामत तक" .......
फिर शुरू हुआ... " पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा........"
मेरा पहला प्यार... "जूही चावला" कित्ती सुन्दर थी और कितनी प्यारी... पर हम तो बहुत छोटे थे.... शायद इसीलिये जूही हमें नही मिली...
उदित नारायण.... भई उस समय के बाद हम तो कुमार सानू के फैन थे... बाद मे हमें जब ज्ञान प्राप्त हुआ तो पता चला कि उदित नारायण साहेब सच मे अच्छा गाते थे , जिसके खिलाफ हमने अपने बड़े भाई साहेब से काफी झगड़ा किया था।
पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा...... मेरा तो सपना है एक चेहरा, देखे जो उसको झूमे बहार, गालो पे खिलती कलियों का मौसम आँखों मे जादू होठों पे प्यार.....
लेकिन....
क्या से क्या हो गया, बेवफा तेरे प्यार में.... चाहा क्या क्या मिला बेवफा तेरे प्यार में.....
Monday, June 11, 2007
कैफी आज़मी
कल ऐसे ही बैठे बैठे एक गाना याद आ गया। हमको अच्छा लगा, तो सोचे कि इसको ब्लोग पे, जिसे कोई पढता तो है नहीं, उसी पे डाल दिया जाये।
आज की काली घटा, मस्त मतवाली घटा, मुझसे कहती हैं के प्यासा है कोई
कौन प्यासा है मुझे क्या मालूम?
अब देखिए, इसमे ऐसे क्या खास बात है जो हम आपको बताएं... ऐसे है तो बहुत कुछ... आगे पढिये
प्यास के नाम से जी डरता है, इस इलज़ाम से जी डरता है, शौक़ -ए -बदनाम से जी डरता है,
मीठी नज़रो मे समाया है कोई....
क्यों समाया है, मुझे क्या मालूम ?
प्यासी आंखो में मुहब्बत ले के, लड़खड़ा जाने कि इजाज़त ले के,
मुझसे बेवजह शिक़ायत लेके, दिल कि दहलीज़ तक आया है कोई
कौन आया है, मुझे क्या मालूम...
कुछ मज़ा आने लगा जीने में, जाग उठा दर्द कोई सीने में ,
मेरे एहसास के आईने में, इक साया नज़र आता है कोई
किसका का साया है, मुझे क्या मालूम
जिन्दगी पहले ना थी इतनी हसीं, और अगर थी तो मुझे याद नहीं
यही अफसाना ना बन जाये कहीँ, कुछ निगाहों से सुनाता है कोई
क्या सुनाता है, मुझे क्या मालूम ?
आज की काली घटा ...
अब ज़रा गौर फरमाइये ... ऐसा लगता है इसको पढ़ कर (और अगर किसी खुशनसीब ने सुना हो तो सुन कर, उसकी कहानी -१९६६ - गीता दत्त- कैफी आज़मी - संगीत- कनु राय ) कि किसी बिरहन ने असमंजस मे कभी खुद की और साथ मे ही दूसरो की भी कहानी कह दी है..
एक बात गौर करने लायक है , वो ये कि पहले पैरा की वाक्य संरचना बाक़ी सबो से भिन्न है ॥
प्यास के नाम से जी डरता है, इस इलज़ाम से जी डरता है, शौक़ -ए -बदनाम से जी डरता है ...
यहाँ पे हमने सब को एक लाइन मे लिख दिया है ... जब कि
प्यासी आंखो में मुहब्बत ले के, लड़खड़ा जाने कि इजाज़त ले के,
मुझसे बेवजह शिक़ायत लेके, दिल कि दहलीज़ तक आया है कोई
इन चार छोटी लाइन को, दो बड़ी लाइन मे क्लब किया है,
पहले पारा मे ब्रेक है, जो कि बहुत महत्त्व रखता है, इस लाइन में
(प्यास के नाम से जी डरता है, इस इलज़ाम से जी डरता है, शौक़ -ए -बदनाम से जी डरता है ...)
हिचकिचाहट है, लेकिन फिर अगले ही लाइन में (मीठी नज़रो मे समाया है कोई.... ) स्वीकृति है, अनुमोदन है, उन्माद है, ये सब एक साथ है... कविता का सौंदर्य तब अनुपम है जब थोड़े शब्दों में अलग अलग अनुभूतियाँ परिलक्षित हो जाएँ... और यही गुण बाक़ी सभी पाराग्राफ में नही है .....
अगर प्रेम मे उन्माद है तो क्या वो प्रेम है?? कदापि नही ...
काफी लोगो ने कहा है "प्रेम में होना और बुद्धिमान होना, साथ साथ संभव नही है", मैं इससे सहमत नही हूँ , और मेरी असहमति उनकी परिभाषा पर निर्भर है, और मेरी समझ से जो प्रेम है वो उन्माद, घृणा, द्वेष से परे है।
सत्य के लिए हम सभी इच्छुक है पर कोई सत्यार्थी नहीं, और जो सच हमने धारण कर लिया है वो भिखारी पे लादे हुए राजसी थाट-बाट से ज्यादा कुछ नही है, वरण एक उत्कृष्ट फूहड़ता की निशानी है....
फिर मिलेंगे....
आज की काली घटा, मस्त मतवाली घटा, मुझसे कहती हैं के प्यासा है कोई
कौन प्यासा है मुझे क्या मालूम?
अब देखिए, इसमे ऐसे क्या खास बात है जो हम आपको बताएं... ऐसे है तो बहुत कुछ... आगे पढिये
प्यास के नाम से जी डरता है, इस इलज़ाम से जी डरता है, शौक़ -ए -बदनाम से जी डरता है,
मीठी नज़रो मे समाया है कोई....
क्यों समाया है, मुझे क्या मालूम ?
प्यासी आंखो में मुहब्बत ले के, लड़खड़ा जाने कि इजाज़त ले के,
मुझसे बेवजह शिक़ायत लेके, दिल कि दहलीज़ तक आया है कोई
कौन आया है, मुझे क्या मालूम...
कुछ मज़ा आने लगा जीने में, जाग उठा दर्द कोई सीने में ,
मेरे एहसास के आईने में, इक साया नज़र आता है कोई
किसका का साया है, मुझे क्या मालूम
जिन्दगी पहले ना थी इतनी हसीं, और अगर थी तो मुझे याद नहीं
यही अफसाना ना बन जाये कहीँ, कुछ निगाहों से सुनाता है कोई
क्या सुनाता है, मुझे क्या मालूम ?
आज की काली घटा ...
अब ज़रा गौर फरमाइये ... ऐसा लगता है इसको पढ़ कर (और अगर किसी खुशनसीब ने सुना हो तो सुन कर, उसकी कहानी -१९६६ - गीता दत्त- कैफी आज़मी - संगीत- कनु राय ) कि किसी बिरहन ने असमंजस मे कभी खुद की और साथ मे ही दूसरो की भी कहानी कह दी है..
एक बात गौर करने लायक है , वो ये कि पहले पैरा की वाक्य संरचना बाक़ी सबो से भिन्न है ॥
प्यास के नाम से जी डरता है, इस इलज़ाम से जी डरता है, शौक़ -ए -बदनाम से जी डरता है ...
यहाँ पे हमने सब को एक लाइन मे लिख दिया है ... जब कि
प्यासी आंखो में मुहब्बत ले के, लड़खड़ा जाने कि इजाज़त ले के,
मुझसे बेवजह शिक़ायत लेके, दिल कि दहलीज़ तक आया है कोई
इन चार छोटी लाइन को, दो बड़ी लाइन मे क्लब किया है,
पहले पारा मे ब्रेक है, जो कि बहुत महत्त्व रखता है, इस लाइन में
(प्यास के नाम से जी डरता है, इस इलज़ाम से जी डरता है, शौक़ -ए -बदनाम से जी डरता है ...)
हिचकिचाहट है, लेकिन फिर अगले ही लाइन में (मीठी नज़रो मे समाया है कोई.... ) स्वीकृति है, अनुमोदन है, उन्माद है, ये सब एक साथ है... कविता का सौंदर्य तब अनुपम है जब थोड़े शब्दों में अलग अलग अनुभूतियाँ परिलक्षित हो जाएँ... और यही गुण बाक़ी सभी पाराग्राफ में नही है .....
अगर प्रेम मे उन्माद है तो क्या वो प्रेम है?? कदापि नही ...
काफी लोगो ने कहा है "प्रेम में होना और बुद्धिमान होना, साथ साथ संभव नही है", मैं इससे सहमत नही हूँ , और मेरी असहमति उनकी परिभाषा पर निर्भर है, और मेरी समझ से जो प्रेम है वो उन्माद, घृणा, द्वेष से परे है।
सत्य के लिए हम सभी इच्छुक है पर कोई सत्यार्थी नहीं, और जो सच हमने धारण कर लिया है वो भिखारी पे लादे हुए राजसी थाट-बाट से ज्यादा कुछ नही है, वरण एक उत्कृष्ट फूहड़ता की निशानी है....
फिर मिलेंगे....
Sunday, June 10, 2007
नमस्कार
हुजूर,
बहुत गुस्ताख हैं हम। नाम भी रखा तो प्रेमचंद जी का। गलत किया, बहुत गलत किया। चलिये इसी बहाने किसी को तो याद आएंगे मुंशी प्रेमचंद। ये ब्लोग मानसरोवर तो नही बन सकता , इतना हमको भी मालूम है आपको भी।
गालिब साहेब कह गए थे,
हमको मालूम है जन्नत कि हकीकत लेकिन, दिल के खुश रखने को गालिब, ये ख्याल अच्छा है।
देखिए, हमको ब्लोग लिखना पसंद नही है, पर हम सोचे कि शायद कोई तो अच्छा ब्लोग लिखता होगा। जो भी हम पढे हमको अच्छा नही लगा। इसीलिये हम सोचे कि किसी को तो ऐसे लिखना चाहिऐ।
अंगरेजी में तो बहुत लोग लिखते हैं, और बहुत ज्यादा कचरा लिखते हैं इतना ज्यादा कि कोई पढ़ के सर पिट ले। हम लोग आदी हो चुके है कचरा पढने के, कचरा फिल्मे देखने के। अब समस्या यह है कि हम ये बोल के हमारे यहाँ के उन्नत निर्देशक भी बहुत ही ज्यादा बेकार मूवी बनाते हैं तो कौन सुनेगा।
हमारा स्तर "ब्लैक", "रंग दे बसंती" जैसी फिल्मो पे सीमित है जो कि बस कुंठित ही करती हैं। किसी ने सत्यजित राय के मूवी तो देखी नही, रित्विक घटक को कोई नही जानता, किसी को वी शांताराम और गुरू दत्त याद नही रहे, अब जो बच जाता है वो .... छोड़िये हम और शिक़ायत नही करेंगे... मेरे एक प्रिय बंधु ने कहा कि हिंदी मे शिक़ायत का कोई सही शब्द है ही नही... किसी को पता हो बतला देना भई लोगो...
जाने से पहले, हम बतला देना चाहेंगे कि आप हमारे बारे मे पता करने कि इच्छा नही ज़ाहिर करें... हम ऐसे ही गुमनाम ठीक है। हम इस ब्लोग के बारे मे किसी को खुद से नही बतलायेंगे... अगर किसी सज्जन को कुछ पसंद आ रह हो तो बतलाते रहिएगा।
एक बार फिर से मुंशी जी के नाम का प्रयोग करने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
फिर मिलेंगे...
बहुत गुस्ताख हैं हम। नाम भी रखा तो प्रेमचंद जी का। गलत किया, बहुत गलत किया। चलिये इसी बहाने किसी को तो याद आएंगे मुंशी प्रेमचंद। ये ब्लोग मानसरोवर तो नही बन सकता , इतना हमको भी मालूम है आपको भी।
गालिब साहेब कह गए थे,
हमको मालूम है जन्नत कि हकीकत लेकिन, दिल के खुश रखने को गालिब, ये ख्याल अच्छा है।
देखिए, हमको ब्लोग लिखना पसंद नही है, पर हम सोचे कि शायद कोई तो अच्छा ब्लोग लिखता होगा। जो भी हम पढे हमको अच्छा नही लगा। इसीलिये हम सोचे कि किसी को तो ऐसे लिखना चाहिऐ।
अंगरेजी में तो बहुत लोग लिखते हैं, और बहुत ज्यादा कचरा लिखते हैं इतना ज्यादा कि कोई पढ़ के सर पिट ले। हम लोग आदी हो चुके है कचरा पढने के, कचरा फिल्मे देखने के। अब समस्या यह है कि हम ये बोल के हमारे यहाँ के उन्नत निर्देशक भी बहुत ही ज्यादा बेकार मूवी बनाते हैं तो कौन सुनेगा।
हमारा स्तर "ब्लैक", "रंग दे बसंती" जैसी फिल्मो पे सीमित है जो कि बस कुंठित ही करती हैं। किसी ने सत्यजित राय के मूवी तो देखी नही, रित्विक घटक को कोई नही जानता, किसी को वी शांताराम और गुरू दत्त याद नही रहे, अब जो बच जाता है वो .... छोड़िये हम और शिक़ायत नही करेंगे... मेरे एक प्रिय बंधु ने कहा कि हिंदी मे शिक़ायत का कोई सही शब्द है ही नही... किसी को पता हो बतला देना भई लोगो...
जाने से पहले, हम बतला देना चाहेंगे कि आप हमारे बारे मे पता करने कि इच्छा नही ज़ाहिर करें... हम ऐसे ही गुमनाम ठीक है। हम इस ब्लोग के बारे मे किसी को खुद से नही बतलायेंगे... अगर किसी सज्जन को कुछ पसंद आ रह हो तो बतलाते रहिएगा।
एक बार फिर से मुंशी जी के नाम का प्रयोग करने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
फिर मिलेंगे...
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