कल ऐसे ही बैठे बैठे एक गाना याद आ गया। हमको अच्छा लगा, तो सोचे कि इसको ब्लोग पे, जिसे कोई पढता तो है नहीं, उसी पे डाल दिया जाये।
आज की काली घटा, मस्त मतवाली घटा, मुझसे कहती हैं के प्यासा है कोई
कौन प्यासा है मुझे क्या मालूम?
अब देखिए, इसमे ऐसे क्या खास बात है जो हम आपको बताएं... ऐसे है तो बहुत कुछ... आगे पढिये
प्यास के नाम से जी डरता है, इस इलज़ाम से जी डरता है, शौक़ -ए -बदनाम से जी डरता है,
मीठी नज़रो मे समाया है कोई....
क्यों समाया है, मुझे क्या मालूम ?
प्यासी आंखो में मुहब्बत ले के, लड़खड़ा जाने कि इजाज़त ले के,
मुझसे बेवजह शिक़ायत लेके, दिल कि दहलीज़ तक आया है कोई
कौन आया है, मुझे क्या मालूम...
कुछ मज़ा आने लगा जीने में, जाग उठा दर्द कोई सीने में ,
मेरे एहसास के आईने में, इक साया नज़र आता है कोई
किसका का साया है, मुझे क्या मालूम
जिन्दगी पहले ना थी इतनी हसीं, और अगर थी तो मुझे याद नहीं
यही अफसाना ना बन जाये कहीँ, कुछ निगाहों से सुनाता है कोई
क्या सुनाता है, मुझे क्या मालूम ?
आज की काली घटा ...
अब ज़रा गौर फरमाइये ... ऐसा लगता है इसको पढ़ कर (और अगर किसी खुशनसीब ने सुना हो तो सुन कर, उसकी कहानी -१९६६ - गीता दत्त- कैफी आज़मी - संगीत- कनु राय ) कि किसी बिरहन ने असमंजस मे कभी खुद की और साथ मे ही दूसरो की भी कहानी कह दी है..
एक बात गौर करने लायक है , वो ये कि पहले पैरा की वाक्य संरचना बाक़ी सबो से भिन्न है ॥
प्यास के नाम से जी डरता है, इस इलज़ाम से जी डरता है, शौक़ -ए -बदनाम से जी डरता है ...
यहाँ पे हमने सब को एक लाइन मे लिख दिया है ... जब कि
प्यासी आंखो में मुहब्बत ले के, लड़खड़ा जाने कि इजाज़त ले के,
मुझसे बेवजह शिक़ायत लेके, दिल कि दहलीज़ तक आया है कोई
इन चार छोटी लाइन को, दो बड़ी लाइन मे क्लब किया है,
पहले पारा मे ब्रेक है, जो कि बहुत महत्त्व रखता है, इस लाइन में
(प्यास के नाम से जी डरता है, इस इलज़ाम से जी डरता है, शौक़ -ए -बदनाम से जी डरता है ...)
हिचकिचाहट है, लेकिन फिर अगले ही लाइन में (मीठी नज़रो मे समाया है कोई.... ) स्वीकृति है, अनुमोदन है, उन्माद है, ये सब एक साथ है... कविता का सौंदर्य तब अनुपम है जब थोड़े शब्दों में अलग अलग अनुभूतियाँ परिलक्षित हो जाएँ... और यही गुण बाक़ी सभी पाराग्राफ में नही है .....
अगर प्रेम मे उन्माद है तो क्या वो प्रेम है?? कदापि नही ...
काफी लोगो ने कहा है "प्रेम में होना और बुद्धिमान होना, साथ साथ संभव नही है", मैं इससे सहमत नही हूँ , और मेरी असहमति उनकी परिभाषा पर निर्भर है, और मेरी समझ से जो प्रेम है वो उन्माद, घृणा, द्वेष से परे है।
सत्य के लिए हम सभी इच्छुक है पर कोई सत्यार्थी नहीं, और जो सच हमने धारण कर लिया है वो भिखारी पे लादे हुए राजसी थाट-बाट से ज्यादा कुछ नही है, वरण एक उत्कृष्ट फूहड़ता की निशानी है....
फिर मिलेंगे....
Monday, June 11, 2007
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